सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

हमारा समय और सांस्कृतिक चुनौतियां

शिवराम स्मृति समारोह
"हमारा समय और सांस्कृतिक चुनौतियां" पर परिचर्चा
"हमारे पुरोधा : शिवराम" का लोकार्पण


कोटा, २ अक्टूबर. २०१४


सुप्रसिद्ध रंगकर्मी एवं साहित्यकार शिवराम के चतुर्थ स्मृति-दिवस पर विकल्प जन सांस्कृतिक मंच, कोटा द्वारा गत १ अक्टूबर, २०१४ को एम. डी. मिशन कॉलेज के सभागार में एक समारोह का आयोजन किया गया। "हमारा समय और सांस्कृतिक चुनौतियां" विषय पर एक सार्थक परिचर्चा और राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित एवं महेन्द्र नेह द्वारा लिखित पुस्तक "हमारे पुरोधा : शिवराम" का लोकार्पण इस समारोह के मुख्य आकर्षण रहे। इस अवसर पर रवि कुमार द्वारा शिवराम की रचनाओं पर केंद्रित एक कविता पोस्टर श्रृंखला का प्रदर्शन भी किया गया।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार प्रो० मोहन श्रोत्रिय ने परिचर्चा का समाहार करते हुए कहा कि हमारा देश-समाज इस समय गहरे सांस्कृतिक संकट से गुजर रहा है। संस्कृति और धर्म का घालमेल किया जा रहा है, धर्म को संस्कृति की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। जबकि संस्कृति कहीं अधिक व्यापक संकल्पना है जिसका कि धर्म एक संकीर्ण अवयव मात्र है। हमारी विविधता से भरी समावेशी संस्कृति निशाने पर है और इस पर कट्टरवादी सामंती धार्मिक प्रभुत्व का संकट हमारे समय की सबसे बड़ी सांस्कृतिक चुनौती है। इस संकट के लिए मात्र कुछ संगठनों और मीडिया को कोसने से काम नहीं चलेगा, बल्कि संकट की जड़ो को तलाशना होगा। उन्होंने विस्तार से अपनी बात रखते हुए कहा कि वर्तमान बाज़ारवादी संस्कृति के साथ धार्मिक उन्माद पैदा करने वाली पतित संस्कृति का ताना-बाना बुनकर देशवासियों को विकास के दुस्वप्न दिखाये जा रहे हैं। इसके पीछे देश के शासक-वर्ग हैं, जो साम्राज्यवादी आर्थिक-राजनैतिक ताकतों के साथ दुरभि संधि करके देश के संसाधनों की अंधी लूट के लिए सांस्कृतिक विभ्रमों की सृष्टि कर रहे हैं। हमें फासीवाद की आहटों को सुनना, पहचानना सीखना-सिखाना होगा और उनके खिलाफ़ एक व्यापक राजनैतिक और संस्कृतिकर्म की लामबंदी करनी होगी। कलाकर्म को व्यक्तिगतता के दायरे से बाहर निकालना होगा, क्योंकि हर व्यक्तिगत कर्म अंततः राजनैतिक होता ही है, पर्सनल इज़ पॉलिटिकल। कला जगत को वर्तमान राजनीति के प्रतिकार की राजनीति में उतरना होगा, यही हम कला और संस्कृतिकर्मियों के लिए हमारे समय की चुनौतियों के खिलाफ़ एक सक्रिय और सचेत प्रतिरोध की राह हो सकती है।

वरिष्ठ शायर और विकल्प के अध्यक्ष अखिलेश अंजुम के स्वागत वक्तव्य के बाद परिचर्चा की शुरुआत करते हुए रंगकर्मी संदीप राय ने कहा कि शिवराम ने वर्तमान शोषक-शासक व्यवस्था के जन-विरोधी चरित्र को बेनकाब करने तथा उसके विरुद्ध प्रतिरोध जगाने के लिए सर्वाधिक प्रभावी माध्यम के रूप में नुक्कड़ नाटक को चुना। उनके नाटकों में आज के समय के संकटों की स्पष्ट अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। उन्होंने सत्तापोषित मीडिया के मुक़ाबले जन-मीडिया की आवश्यकता पर जोर दिया। साथी नारायण शर्मा ने कहा कि हमें वैचारिक प्रखरता एवं श्रमिकों-किसानों के बीच संस्कृति कर्म द्वारा नव जागरण की धार को विकसित करना होगा। व्यंग्यकार डॉ. अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि साहित्य और संस्कृति के लिए स्थापित जनसंचार माध्यमों में जगह लगातार कम हो रही है और वर्तमान समय की सांस्कृतिक चुनौतियों के पीछे नई तकनीक और हाई फाई ब्रेन योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि देश के युवाओं को प्रगतिशील और जनपक्षधर संस्कृति के मूल्यों से परिचित कराना समय की मांग है।

साथी बी.एम. शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि शिवराम ने अपने विचारों तथा संस्कृतिकर्म से एक वैकल्पिक रास्ता दिखाया था और हमें इसे और आगे बढ़ाना चाहिये। महेन्द्र नेह ने कहा कि शासक-वर्ग की की संस्कृति मरणशील संस्कृति है, साम्राज्यवाद का आर्थिक-जहाज डूब रहा है। पूंजी और सत्ता का फासीवादी गठजोड़ इस बात की स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि आर्थिक संकट अब लाइलाज होता जा रहा है। हमें मीडिया के दुष्प्रचार से हताश न होकर जन-गण के बीच शासक-वर्ग के झूठ-फरेब के विरुद्ध न्याय व सचाई की अलख जगानी चाहिये। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मशहूर शायर शकूर अनवर ने शिवराम के संस्कृतिकर्म को धर्म जाति, संप्रदाय की सीमाओं को तोड़कर एक न्यायपरक व समतामूलक समाज के सपने जगानेवाला प्रेरणादायक संस्कृतिकर्म बताया।

‘हमारे पुरोधा : शिवराम’ पुस्तक पर अपने विचार रखते हुए कवि-समीक्षक हितेश व्यास ने कहा कि शिवराम ने अपने नाटकों के जरिये जनता की सोई हुई चेतना को जगाने का काम किया और उनकी कविताओं में भी लोक नाट्य और जन चेतना की प्रखर कलात्मकता है जो जीवन के यथार्थ से उपजी है। डा. प्रेम जैन ने पुस्तक-परिचय के रूप में अपनी लिखित टिप्पणी में कहा कि महेन्द्र नेह ने इस पुस्तक के ज़रिये शिवराम के जीवन, कविताओं, नाटकों व गद्य से न केवल हमें परिचित कराया है, अपितु उनके लेखन में गुंथी हुई युगपरिवर्तनकामी ऊर्जा को भी पाठकों तक पहुंचाने का कार्य किया है। डॉ. ओम नागर ने कहा कि शिवराम के नाटकों का हाड़ौती भाषा में अनुवाद करते समय उन्होंने अनुभव किया कि शिवराम में जन मनोविज्ञान और लोक मुहावरों को चित्रित करने की अपूर्व क्षमता थी, और यही कारण था कि उनके नाटक जनता से सीधे संवाद करते थे, उनकी चेतना में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करते थे।

समारोह की अध्यक्षता करते हुए ख्यात कवि अंबिकादत्त ने कहा कि परिवर्तनकामी चेतना को अपने साहित्य व नाटकों के जरिये व्यापक जन तक ले जाने वाले शिवराम जैसे रचनाकार विरल ही होते हैं। उनके सानिध्य की ऊर्जा अभी तक हमें इस तरह आंदोलित करती है कि लगता ही नहीं कि वे अब हमारे बीच में नहीं है। वरिष्ठ रचनाकार निर्मल पाण्डेय ने शिवराम को जीता-जागता जन-मीडिया और समय के आगे चलने वाले संस्कृतिकर्मी बताया। विशिष्ट अतिथि डॉ. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी ने संस्कृति और साहित्य के संबंधों को व्याख्यायित करते हुए शिवराम के योगदान को रेखांकित किया। अध्यक्ष मंडल के सदस्य दिनेश राय द्विवेदी ने अपने उद्बोधन में कहा कि शिवराम के जीवन और रचनाकर्म में कोई विलगाव नहीं था। वे जैसा देखते और विश्लेषित करते थे, वैसा लिखते थे और जैसा लिखते थे वैसा ही अपने जीवन में उतारते और सक्रिय रहा करते थे। समय के द्वंद्वों और अंतर्विरोधों को समझने और उन्हें अपनी रचनाओं में सहजता से ढ़ालने की क्षमता उनके अंदर गहरे से पैबस्त थी। उन्होंने अपने नाटकों व कविताओं से जनता को प्रतिरोध की संस्कृति से संस्कारित करने, भयमुक्त होने तथा विद्रोह की ओर आगे बढ़ने की राह प्रशस्त की।

अंत में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए विकल्प के महासचिव महेन्द्र नेह ने सभी अतिथियों और भागीदारों का आभार व्यक्त किया। समारोह में कोटा शहर के साहित्य-कला-संस्कृति कर्मियों और प्रेमियों के साथ-साथ शिवराम के परिवारजनों ने भी सक्रिय भागीदारी की।




विकल्प जन सांस्कृतिक मंच, कोटा

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

अप-संस्कृति के विरुद्ध व्यापक जन सांस्कृतिक आन्दोलन का आह्वान

‘विकल्प’ के अ.भा. सम्मेलन में अप-संस्कृति के विरुद्ध व्यापक जन सांस्कृतिक आन्दोलन का आह्वान

‘विकल्प’ के अ.भा. जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा का द्वितीय अ.भा. सम्मेलन मोर्चा के संस्थापक अध्यक्ष यादवचन्द्र की कर्मभूमि, बौद्ध-संस्कृति एवं जन-संस्कृति के केन्द्र रहे साहेबगंज, जिला मुजफ्फरपुर, बिहार में 15 से 17 फरवरी, 2013 को प्रसिद्ध रंगकर्मी शिवराम के नाम पर निर्मित शिवराम नगर में सम्पन्न हुआ। 

सम्मेलन में देश के 12 प्रदेशों से दो सौ साहित्यकार, रंगकर्मी व कलाकार सम्मिलित हुए। सम्मेलन का प्रारम्भ ‘विकल्प’ के अ.भा. अध्यक्ष, भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ द्वारा झण्डोलोत्तन एवं जनगायक मण्डली द्वारा झण्डागीत व शहीदगान के साथ हुआ। समारोह के स्वागताध्यक्ष सी.एन. कॉलेज के प्राचार्य डॉ. राम नरेश पंडित ‘रमण’ ने अतिथियों, प्रतिनिधियों, कलाकारों व साहित्यकारों का क्रान्तिकारी अभिनन्दन व स्वागत करते हुए उम्मीद जताई कि यह सम्मेलन अप-संस्कृति के विरुद्ध जोरदार चुनौती बन कर उभरेगा।

15 फरवरी को खुले सत्र का उद्घाटन करते हुए डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ ने साहित्यकारों व कलाकर्मियों से जनपक्षधर साहित्य व संस्कृति के प्रसार के लिए एकजुट होने की अपील की। उन्होंने साम्राज्यवादी सामन्ती व्यवस्था एवं अभिजनवादी संस्कृति के विरुद्ध देशव्यापी जन आंदोलन चलाने एवं श्रमिकों-किसानों-आदिवासियों के जीवन-संघर्षों को केन्द्र में रखकर वैकल्पिक जन-सांस्कृतिक वातावरण निर्मित करने का आह्वान किया। इस अवसर पर सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए ‘विकल्प’ के अ.भा. सचिव शैलेन्द्र चैहान ने कहा कि जनवादी साहित्य व संस्कृति को शहरी अकादमिक घेरेबन्दी से निकालकर गरीब बस्तियों व गांवों में जन-जन के बीच ले जाने की दिशा में यह सम्मेलन एक अनुकरणीय उदाहरण है। सिलीगुड़ी से आये ‘तिस्ता हिमालय’ के संपादक डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने कहा कि बाजारवादी संस्कृति फूहड़ता और लम्पटता को बढ़ावा देकर युवकों को गुमराह कर रही है। इसके बरक्स हमें प्रतिरोध की संस्कृति विकसित करनी होगी। चम्पारण से माकपा के पूर्व विधायक रामाश्रय सिंह ने कहा कि प्रगतिशील-जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन को एक नई दिशा व ऊर्जा देना जरूरी हो गया है। एम.सी.पी.आई.(यू.) के प्रदेश सचिव विजय कुमार चैधरी ने मोर्चा के कलाकारों का आह्वान किया कि वे देश व दुनियां में साम्राज्यवाद के विरुद्ध चल रहे आंदोलनों के पक्ष में सांस्कृतिक मुहिम छेड़ें तथा संस्कृति को जमीन से जोड़ने का काम करें। खुले अधिवेशन को सम्बोधित करने वालों में डॉ. रमाकान्त शर्मा, शकूर अनवर, रवि कुमार व नारायण शर्मा (राजस्थान), डॉ. रमाशंकर तिवारी (हरियाणा), अनुभवदास शास्त्री (उ.प्र.) एवं मनोज कुमार वर्मा, भूपनारायण सिंह, चन्द्रमोहन, रमाशंकर गिरि, कामेश्वर प्रसाद ‘दिनेश’, दीपक कुमार सीवान सहित विभिन्न संगठों के पदाधिकारी प्रमुख थे। वक्ताओं ने स्वस्थ संस्कृति के निर्माण में जुटे रंगकर्मियों को वर्तमान परिस्थितियों में अपने दायित्व को गंभीरता से लेने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि आज राजनीति निस्तेज हो चुकी है, इसलिए संस्कृति की मशाल हाथ में लेकर समाज को रास्ता दिखाने की जवाबदेही कला-साहित्य के साधकों पर ही है।

प्रतिनिधि सत्र में ‘विकल्प’ के महासचिव महेन्द्र नेह ने प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में आ रहे बड़े परिवर्तनों की ओर इशारा किया। उन्होंने कहा कि अमरीकी व यूरोपीय अर्थ-व्यवस्था का ढांचा गहरे संकट से चरमरा रहा है, ऐसे समय में हमें बाजारवादी संस्कृति के आभासी प्रभामंडल को तोड़ते हुए प्रतिरोध, जन-जागरण एवं नव-अभ्युदय की मुहिम तेज करनी चाहिए। सत्र में देश के विभिन्न प्रदेशों से आये प्रतिनिधियों व पर्यवेक्षकों ने मंहगाई, महिला उत्पीड़न, साम्प्रदायिकता व क्षेत्रवाद, सामन्ती मूल्यों, शिक्षा नीति, मीडिया जनित अप-संस्कृति, युद्धोन्माद के विरुद्ध तथा व्यापक साहित्यिक सांस्कृतिक संयुक्त मोर्चा बनाने के पक्ष में विभिन्न प्रस्ताव पारित किये।

रात्रि में ‘विकल्प’ की मुजफ्फरपुर इकाई द्वारा धीरेन्द्र कुमार ‘धीरू’ के निर्देशन में नाटक ‘मशीन’ एवं छपरा इकाई द्वारा प्रस्तुत नाटक ‘मदछोड़वा’ की प्रभावी प्रस्तुति में उदयशंकर गुड्डू एवं कमल राय के अभिनय को काफी पसंद किया गया। रजवाड़ा, हलीमपुर एवं सीवान के कलाकारों द्वारा जनगीतों व लोकगीतों ने दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ी। इस अवसर पर महेन्द्र नेह की अध्यक्षता में कवि-सम्मेलन व मुशायरे का आयोजन किया गया, जिसमें डॉ. रमाकांत शर्मा, शकूर अनवर, डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’, डॉ. रवीन्द्र उपाध्याय, शैलेन्द्र चैहान, श्रवण कुमार, मंजर अली, अली मोहम्मद ‘रंज’, कैसर सिद्दीकी, रवि कुमार, मनोज कुमार वर्मा, वासुदेव प्रसाद, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, विभाकर ‘विमल’, महेश ठाकुर ‘चकोर’, शिबगतुल्लाह ‘हमीदी’, तारकेश्वर प्रसाद सिंह, नारायण शर्मा, मकरध्वज भगत आदि कवि-शायरों की कविताओं को देर रात तक सुना गया। कवि-सम्मेलन का संचालन एम.एस. कॉलेज मोतिहारी के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. अरुण कुमार तथा सांस्कृतिक-सत्र का संचालन दीपक कुमार एवं डॉ. कृष्णनन्दन सिंह द्वारा किया गया।

16 फरवरी को महासचिव द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पर 27 प्रतिनिधियों ने बहस में हिस्सा लिया। बहस के अन्त में आगामी कार्यक्रमों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई। इसी सत्र में अखिल भारतीय कार्यकारिणी का चुनाव सर्वसम्मति से किया गया जिसमें डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ को अध्यक्ष, शैलेन्द्र चैहान व डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह को उपाध्यक्ष, महेन्द्र नेह महासचिव, शकूर अनवर संयुक्त सचिव, डॉ. रामशंकर तिवारी व विनोद कुमार सचिव, मनोज कुमार वर्मा प्रचार सचिव व नारायण शर्मा कोषाध्यक्ष चुने गये। कार्यकारिणी सदस्यों में दीपक कुमार, अनुभवदास शास्त्री, वासुदेव प्रसाद, डॉ. कृष्णनन्दन सिंह, अलीक, गोपाल नायडू, हरेराम समीप, सौरभ चुने गये। महिलाओं के लिए दो स्थान रिक्त रखे गये।

रात्रि में पुनः सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रभावी प्रस्तुतियां हुई, जिन्हें देखने के लिए निकटवर्ती गांवों से बड़ी संख्या में दर्शकगण उपस्थित हुए। कार्यक्रम का प्रारम्भ महाकवि निराला की वसंत पर आधारित प्रसिद्ध रचना ‘अभी न होगा मेरा अंत’ की दीपक कुमार, विनोद, प्रशांत पुष्कर, बाबूलाल साहनी एवं अली मोहम्मद के समवेत स्वरों में हुई। ‘जसम’ के प्रभाकर तिवारी द्वारा पूर्वी गायन को सराहा गया। दूसरे चरण में साहेबगंज की इकाई द्वारा भारतेन्दु के नाटक ‘अंधेर नगरी’ का सफल मंचन तथा मांझी गीत, जट-जटिन, डांडिया, वसंत लोक-नृत्यों एवं पचरा गीत की प्रस्तुतियां हुईं।

सम्मेलन का अंतिम दिवस प्रख्यात माक्र्सवादी जन संस्कृतिकर्मी यादवचन्द्र की स्मृति में अखिल भारतीय समारोह के रूप में मनाया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता ‘विकल्प’ बिहार के सचिव चन्द्रमोहन प्रसाद ने की तथा उद्घाटन नालन्दा विश्वविद्यालय के आमंत्रित प्रोफेसर डॉ. अर्जुन तिवारी द्वारा किया गया। समारोह को सम्बोधित करते हुए डॉ. तिवारी ने कहा कि यदि राहुल सांकृत्यायन एवं नागार्जुन को मिला दें तो एक व्यक्तित्व बनता है, जिसका नाम यादवचन्द्र। उन्होंने कहा कि यादवचन्द्र के साहित्यिक-सांस्कृतिक अवदान पर शोध की आवश्यकता है। वे प्रयास करेंगे कि नालन्दा खुला विश्वविद्यालय में हिन्दी व भोजपुरी के पाठ्यक्रमों में यादवचन्द्र की रचनाओं को शामिल किया जाये। डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ ने कहा कि वे कबीर, सरहपा, निराला और मुक्तिबोध की परम्परा के कवि थे। एम.सी.पी.आई.(यू.) के राज्य सचिव विजय कुमार चौधरी ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि यादवचन्द्र जनवादी कला संस्कृति के जीवंत विश्वविद्यालय थे। आज के युवा रचनाकारों व रंगकर्मियों को उनके साहित्य, रंगकर्म व जीवन से शिक्षण लेने की आवश्यकता है। प्रखर समीक्षक डॉ. रमाकान्त शर्मा ने यादवचन्द्र को वैज्ञानिक सोच एवं सृजनात्मक ऊर्जा के अप्रतिम स्रोत बताते हुए उनके रचनाकर्म को जन-जन तक पहुंचाने की आवश्यकता पर बल दिया। प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रेवतीरमन ने कहा कि यादवचन्द्र के पथ पर वही रचनाकर्मी चल सकते हैं, जिनमें सर्वहारा संस्कृति के लिए अपना सब कुछ होम कर देने की प्रतिबद्धता हो। ‘विकल्प’ के महासचिव महेन्द्र नेह ने कहा कि यादवचन्द्र का मूल्यांकन अभी शेष है, वे अपने लेखन व कला कर्म में सदैव शोषित-पीडि़तों के साथ खड़े नजर आये। कला संस्कृति में उनके योगदान को भावी पीढ़ी सदा याद रखेगी। डॉ. अरुण कुमार, मनोज कुमार वर्मा, भूपनारायण सिंह, रवि कुमार, कामेश्वर प्रसाद ‘दिनेश’, नारायण शर्मा, विनोद, दीपक, जंग बहादुर सिंह ने भी यादवचन्द्र के व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रकाश डाला। इस अवसर पर डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ एवं डॉ. अर्जुन तिवारी द्वारा संपादित यादवचन्द्र के वर्ग-संघर्ष पर आधारित प्रसिद्ध प्रबन्ध काव्य ‘‘परम्परा और विद्रोह’’ के दूसरे संस्करण, डॉ. रवीन्द्र ‘रवि’ द्वारा सम्पादित स्मारिका तथा महेन्द्र नेह द्वारा सम्पादित साहित्यिक पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ के 40वें अंक को लोकार्पित किया गया।

समारोह के अंत में भव्य सांस्कृतिक समारोह आयोजित किया गया, जिसमें उमेशजी के नेतृत्व में रजवारा, हलीमपुर के कलाकारों द्वारा कव्वाली, सीवान जागृति मंच द्वारा नाटक ‘खेल दर खेला’ तथा मालीघाट इकाई के कलाकारों द्वारा कामेश्वर प्रसाद ‘दिनेश’ के निर्देशन में प्रेमचन्द की कहानी ‘सवासेर गेहूँ’ का नाट्य रूपांतर प्रस्तुत किया गया। नाटक की प्रस्तुति में ग्रामीण जीवन के यथार्थ को जिस कलात्मक उत्कर्ष तक पहुंचाया गया, वह अद्भुत एवं अविस्मरणीय था। नाटक में शंकर की भूमिका में अरुण कुमार वर्मा, पंडित की भूमिका में कामेश्वर प्रसाद ‘दिनेश’ तथा दीना की भूमिका में रणधीर कुमार ने बेहद सशक्त अभिनय किया। इसके अलावा, अनवर, मंगल रघु की भूमिका में सुबोध कुमार, बैजू कुमार, विशाल, सजन, गुलशन एवं बाबा के रूप में महेन्द्र साह ने दर्शकों पर अपनी अभिनय क्षमता की छाप छोड़ी।

सम्मेलन के दौरान कार्यक्रम स्थल पर ‘विकल्प’ की विभिन्न इकाइयों के बैनरों, प्रगतिशील साहित्यकारों के चित्रों एवं कवि-चित्रकार रवि कुमार द्वारा निर्मित कविता पोस्टर प्रदर्शनी दर्शकों के आकर्षण का केन्द्र बनी रही। ‘विकल्प’ के मुजफ्फरपुर जिला सचिव बैजू कुमार ने देश एवं बिहार के सुदूर क्षेत्रों से सम्मेलन में शामिल हुए प्रतिनिधियों, अतिथियों के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हुए कहा कि इस सम्मेलन की सफलता का श्रेय अंचल की समृद्ध लोक परम्परा एवं आम जनता को जाता है, जिन्होंने विपरीत मौसम के बावजूद सम्मेलन स्थल पर बड़ी संख्या में उपस्थित होकर इसे आम जन का सांस्कृतिक सम्मेलन बना दिया। अंत में ‘विकल्प’ के सभी उपस्थित प्रतिनिधियों एवं आम जनता ने कार्यक्रम का समापन ‘‘हम होंगे कामयाब एक दिन’’ समूह गीत के साथ ‘स्वस्थ संस्कृति का निर्माण करें, पूंजीवादी संस्कृति का नाश हो तथा आम जनता का कला-साहित्य जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए सम्मेलन की अनुगूंज पूरे देश में पहुंचाने का संकल्प व्यक्त किया।

















प्रस्तुति:
दीपक कुमार
सदस्य, अखिल भारतीय कार्यकारिणी ‘विकल्प’
सम्पर्क: बिहार पब्लिक स्कूल, सीवान (बिहार)-841226
चलभाष: 0978283200

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

व्यापक जन सांस्कृतिक आंदोलन खड़े करने होंगे

द्वितीय शिवराम स्मृति दिवस समारोह
जन सांस्कृतिक आंदोलन खड़े करने होंगे

कोटा, 2 अक्टूबर 2012.सुप्रसिद्ध कवि, नाट्य लेखक, निर्देशक, समीक्षक एवं विचारक शिवराम के द्वितीय स्मृति दिवस पर ‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच, श्रमजीवी विचार मंच एवं अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच द्वारा 30 सितम्बर व 1 अक्टूबर को ‘आशीर्वाद हॉल’ कोटा में दो दिवसीय वृहत साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन किया गया। इस आयोजन का उद्देश्य शिवराम द्वारा जीवन-पर्यन्त साहित्य, संस्कृति, समाज, राजनीति एवं विविध क्षेत्रों में किये गये प्रयत्नों को एकसूत्रता में पिरोना, उनकी स्मृति को संकल्प में तथा शोक को संकल्प में ढालने का साझा प्रयास था। आयोजन में देश के विभिन्न हिस्सों से आमंत्रित लेखकों व संस्कृतिकर्मियों के अलावा हाड़ौती-अंचल के करीब दो सौ से अधिक रचनाकार, श्रोता व पाठक शामिल हुए।

इस महत्वपूर्ण आयोजन में जनवादी रचनाकारों व संस्कृतिकर्मियों ने बाजारवादी अप-संस्कृति एवं सामन्ती संस्कृति के खिलाफ नई जनपक्षधर संस्कृति का विकल्प खड़ा करने की जरूरत बताई। साथ ही बताया कि पूंजीवादी राजनीति का घिनौना चेहरा जनतांत्रिक मूल्यों को तहस-नहस कर रहा है। ऐसे में व्यापक जन-आंदोलन का माहौल बनाना होगा। आयोजन का प्रारम्भ 30 सितम्बर को मुख्य अतिथि, ‘विकल्प’ अ.भा. जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ ( मुजफ्फरपुर ) द्वारा मशाल प्रज्ज्वलित करके किया गया। सुप्रसिद्ध भोजपुरी गायक दीपक कुमार ( सीवान ) की अगुआई में मोर्चा के बैनर-गीत ‘ये वक्त की आवाज है मिल के चलो’ के पश्चात् वासुदेव प्रसाद ( गया) , प्रशांत पुष्कर ( सीवान ) एवं शरद तैलंग ( कोटा ) द्वारा शिवराम के जन-गीतों तथा गण-संगीत की प्रभावी प्रस्तुति की गई। ‘विकल्प’ जनसांस्कृतिक मंच के सचिव शकूर अनवर द्वारा स्वागत-वक्तव्य में अतिथियों का स्वागत करते हुए आयोजन के उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया।

      परिचर्चा में विचार व्यक्त करते हरेराम ‘समीप’ ( फरीदाबाद )
परिचर्चा में विचार व्यक्त करते शैलेन्द्र चौहान ( दिल्ली )
परिचर्चा में विचार व्यक्त करते डॉ.रामशंकर तिवारी ( फरीदाबाद )
अपरान्ह 3 बजे ‘‘सांस्कृतिक नव जागरण: परिदृश्य एवं संभावनाऐं’’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में दिल्ली, हरियाणा, बिहार, मध्य प्रदेश व अन्य स्थानों के जाने-माने साहित्यकारों ने अपने विचार व्यक्त किये। विशिष्ट-अतिथि हरेराम ‘समीप’ ( फरीदाबाद ) ने कहा कि कार्पोरेट घरानों और शासक दलों की सांठ-गांठ के चलते विषमता और असमानता चरम पर पहुंच गई है। सांस्कृतिक क्षरण भी चरम पर है। ऐसे दुर्योधन-वक्त में व्यापक जन-आंदोलन खड़ा करने के लिए जनता को जगाना होगा। शैलेन्द्र चैहान ( दिल्ली ) ने कहा कि हमें सामंती संस्कृति के मुकाबले नई वैकल्पिक संस्कृति का निर्माण करना होगा। डॉ. रामशंकर तिवारी ( फरीदाबाद ) ने कहा कि सामंतवादी संस्कृति आज भी समाज में मौजूद है। दक्षिणपंथी ताकतें पुनरुत्थान आंदोलन चला रही हैं। दलितों, आदिवासियों और महिलाओं से भेदभाव के संस्कार हमारे व्यक्तित्व में अंदर तक है। तीज-त्यौहार भी बाजारवादी संस्कृति के हवाले होते जा रहे हैं।

परिचर्चा में विचार व्यक्त करते विजय कुमार चौधरी ( पटना )
परिचर्चा में विचार व्यक्त करते डॉ. रविन्द्र कुमार ‘रवि’ ( मुज़फ्फरपुर )
डॉ. मंजरी वर्मा ( मुजफ्फरपुर ) ने कहा कि हमारी संस्कृति में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से कई तरह की खामियां पैदा हो गई हैं। शिवराम ने जिस तरह गांव-गांव जाकर नाटकों के मंचन से जन-संस्कृति की अलख जगाई थी, उसी तर्ज पर हमें जुटना होगा। नारायश शर्मा ( कोटा ) ने कहा कि संस्कृति के क्षेत्र में घालमेल नहीं होना चाहिए। मीडिया दिन-रात मुट्ठीभर अमीरों की संस्कृति का प्रचार कर रहा है, सांस्कृतिक नव-जागरण के लिए करोड़ों गरीबों व मेहनतकशों की संस्कृति का परचम ही उठाना होगा। पटना से आये विजय कुमार चैधरी ने कहा कि इन दिनों प्रगतिशील-जनवादी संस्कृतिकर्मियों व उनकी पत्रिकाओं के बीच भी रहस्यवाद, भाग्यवाद व कलावाद के पक्षधर स्थान पाने लगे हैं, इस प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिए। डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ ने समाहार करते हुए कहा कि इस समय बाजारवादी - सामंती संस्कृति अपने पतन की पराकाष्ठा पर है तथा आम-जन को गहरे भटकावों में फॅंसा रही है। ऐसे समय में हमें भारतेन्दु, प्रेमचन्द, राहुल, निराला, नागार्जुन, यादवचन्द्र व शिवराम की तरह जनता को जगाने के लिए देशव्यापी सांस्कृतिक अभियान छेड़ना होगा।

अध्यक्ष मण्डल की ओर से बोलते हुए तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आर.पी. यादव ने कहा कि किसी भी देश के विकास में विचार की मुख्य भूमिका होती है। डॉ. नरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी ने कहा कि जागरूक संस्कृति कर्म द्वारा समाज की प्रचलित रूढि़यों व मूल्यहीनता को एक हद तक रोका जा सकता है। परिचर्चा में टी.जी. विजय कुमार, शून्य आकांक्षी, वीरेन्द्र विद्यार्थी एवं विजय सिंह पालीवाल ने भी अपने विचार व्यक्त किये। संचालन महेन्द्र नेह ने किया।

समारोह के दूसरे दिन 1 अक्टूबर, 12 को शिवराम द्वारा लिखित नाटक ‘नाट्य-रक्षक’ की बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति ‘अनाम’ कोटा के कलाकारों द्वारा की गई। नाटक में वर्तमान ‘मतदान-पद्धति’, जिसे भारतीय लोकतंत्र का आधार बताकर प्रचारित किया जाता है, का चरित्र पूरी तरह पैसे और बाहुबल द्वारा निर्धारित हो जाने पर करारा व्यंग्य किया गया। अजहर अली द्वारा निर्देशित इस नाटक में प्रमुख पात्रों की भूमिका डॉ पवन कुमार स्वर्णकार, भरत यादव, रोहित पुरुषोत्तम, आकाश सोनी, तपन झा, गौरांग, देवेन्द्र खुराना, राकेश, सचिन राठौड़ व अजहर अली ने निभाई। गया से पधारे नाट्य-कर्मी वासुदेव एवं कृष्णा जी द्वारा प्रेमचन्द की कहानी ‘सद्गति’ की मगही भाषा में प्रभावी नाट्य-प्रस्तुति भी की गई।

इस अवसर पर ‘विकल्प’ अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक भी सम्पन्न हुई। बैठक में मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव महेन्द्र नेह द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन में अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय परिस्थितियों में आ रहे महत्वपूर्ण परिवर्तनों को रेखांकित करते हुए साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में शहर से गांवों तक जन-संस्कृति की मुहिम छेड़ने, देशभर में प्रगतिशील जनवादी लेखकों व संस्कृतिकर्मियों के बीच व्यापक एकता विकसित करने तथा संस्कृतिकर्म को मेहनतकश जनता के जीवन-संघर्षों से जोड़ने पर बल दिया गया। बैठक में संगठन को मजबूत करने के साथ आगामी कार्यक्रम की रूपरेखा भी निर्धारित की गई।

इस समारोह में रवि कुमार ( रावतभाटा ) द्वारा, कविता-पोस्टर प्रदर्शनी और ‘विकल्प’ द्वारा एक लघु-पुस्तिका प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसमें दर्शकों और पाठकों ने अपनी गहरी रुचि प्रदर्शित की। ‘कविता पोस्टर प्रदर्शनी’ का उद्घाटन तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आर.पी. यादव द्वारा किया गया। इस अवसर पर शिवराम की पत्नी श्रीमती सोमवती देवी एवं अन्य अतिथियों द्वारा महेन्द्र नेह द्वारा संपादित ‘अभिव्यक्ति’ पत्रिका के शिवराम विशेषांक का लोकार्पण किया गया।

1 अक्टूबर को दूसरे सत्र में वृहत् कवि-सम्मेलन एंव मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसकी अध्यक्षता निर्मल पाण्डेय व अखिलेश अंजुम ने की। विशिष्ट अतिथि जनवादी कवि अलीक ( रतलाम ), मदन मदिर ( बूंदी ) व सी.एल. सांखला ( टाकरवाड़ा ) सहित अंचल के प्रतिनिधि कवियों व शायरों ने अपनी प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ किया। ओम नागर, हितेश व्यास व उदयमणि द्वारा शिवराम को समर्पित कविताऐं सुनाईं। संचालन आर.सी. शर्मा ‘आरसी’ द्वारा किया गया। स्वागत-समिति की ओर से दिनेशराय द्विवेदी, जवाहरलाल जैन, धर्मनारायण दुबे, शब्बीर अहमद व परमानन्द कौशिक द्वारा सभी अतिथियों व सहभागियों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया गया।

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बुधवार, 16 मई 2012

वर्गीय समाज में साहित्य व कला का स्वरूप भी वर्गीय होता है

(सारण में आयोजि‍त बि‍हार राज्‍य जनवादी सांस्‍कृति‍क मोर्चा के सम्‍मेलन की रि‍पोर्ट-)
सारण : ‘विकल्प’ अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा से सम्बद्ध बिहार राज्य जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा का 9वाँ सम्मेलन छपरा के सारण-जनपद के गाँव कोहड़ा-बाजार में भारी उत्साह एवं साहित्य-कला-संस्कृति के क्षेत्र में नई संकल्पबद्धता के साथ 24 से 26 मार्च, 2012 को सम्पन्न हुआ। आयोजन स्थल सहित गाँव के प्रमुख मार्गों को मोर्चा की विभिन्न इकाइयों के रंग-बिरंगे बैनरों, प्रगतिशील साहित्यकारों की तस्वीरों, सामाजिक नारों एवं स्वागत द्वारों से सजाया गया।

जन संस्कृतिकर्मियों के इस अनूठे आयोजन का स्वरूप व सरंचना प्रचलित-आयोजनों से कई मायनों में भिन्न एवं लकीर से हट कर थी। सबसे बड़ी विशेषता यह कि शहरी तामझाम और मीडिया की चमक-दमक से अप्रभावित यह सम्मेलन पूरी तरह ग्रामीण-परिवेश में आयोजित किया गया। भोजपुरी भाषा-भाषी इस अंचल में आज भी महापंडित राहुल सांकृत्यायन, शहीद छट्टू गिरि, भिखारी ठाकुर और महेन्द्र मिसिर के सृजन और संघर्षों की गाथायें और सुगंध व्याप्त है। बिहार के विभिन्न क्षेत्रों, विशेष रूप से मुजफ्फरपुर, छपना, सिवान, गया आदि के जनपदों से मोर्चा के प्रतिनिधियों एवं उनकी इकाइयों ने तीन दिन तक जिस तरह लोक-भाषाओं में गण-संगीत, लोक संगीत व लोक नाट्य शैलियों में मंच पर अपनी प्रस्तुतियॉं दीं,  वे न केवल कला-शिल्प की दृष्टि से अपितु गहरे जन-सरोकारों और सामाजिक सांस्कृतिक जन-जागरण की भावनाओं और इरादों से भी पूरी तरह सम्प्रक्त थीं।
इस आयोजन की सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि सम्मेलन में शामिल लेखकों, रंगकर्मियों, निर्देशकों, नर्तकों व गायकों में मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के मुकाबले ग्रामीण परिवेश में संघर्षमय जीवन बिता रहे किसानों, श्रमिकों, अध्यापकों, छोटे दुकानदारों व खेतिहर मजदूरों, युवा तरुणों व तरुणियों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक थी। यही नहीं मंच की प्रस्तुतियों के केन्द्र में भी श्रमजीवी जनगण के जीवन की सचाइयाँ, सपने, उमंगे और सामाजिक-परिवर्तन की उद्दाम आकांक्षाऐ थीं। यही कारण था कि आसपास के सभी गाँवों व जनपदों से दर्शकों व श्रोताओं का ताँता लगा रहा।

सम्मेलन का प्रारम्भ बिहार जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा के अध्यक्ष वासुदेव प्रसाद द्वारा झण्डात्तोलन के साथ किया गया। मेजबान सीवान की जाग्रति-इकाई की ओर से साथी दीपक की अगुआई में शहीद गान की प्रस्तुति दी गई। मोर्चा के अखिल भारतीय अध्यक्ष डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ ने सम्मेलन का विधिवत उद्घाटन करते हुए कहा कि बिहार राज्य जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा तमाम अवरोधों के बावजूद आज राज्य में जनवादी संस्कृति के फरहरे को ऊँचा उठाये अबाध गति से आगे बढ़ रहा है। मोर्चा के कलाकार कुसंस्कृति के विरुद्ध आंदोलन एवं स्वस्थ जनवादी संस्कृति के प्रसार के लिये संकल्पबद्ध हैं। मोर्चा अपने निर्माणकाल से ही इस लड़ाई को लड़ता रहा है और अंतिम दम तक लड़ता रहेगा। यह वह संगठन है जिसने पूँजीवादी सामंती अप-संस्कृति से कभी हाथ नहीं मिलाया और हमारे कलाकर्मी हमेशा उसके कृत्रिम प्रभा-मंडल को चुनौती देते रहे। यह संगठन आम जनता की संस्कृति की रक्षा एवं समाज की सृजनशील शक्तियों मजदूरों, किसानों, दलितों, आदिवासियों, युवा एवं महिलाओं के सामाजिक-सांस्कृतिक उन्नयन के लिए सक्रिय तथा उनके आर्थिक व राजनीतिक संघर्षों का हमसफर है।
अतिथि-सत्र को सम्बोधित करते हुए जे.पी. विश्‍वविद्यालय के प्रोफेसर डॉक्‍टर वीरेन्द्र नारायण यादव ने भोजपुरी गीतों एवं फिल्मों में आई अश्‍लीलता पर चिन्ता व्यक्त करते हुए अपसंस्कृति के मुकाबले स्वस्थ सांस्कृतिक वातावरण बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। डॉक्‍टर लाल बाबू यादव ने प्रगतिशील व स्वस्थ संस्कृति के निर्माण में रचनाकारों व कलाकारों की भूमिका को रेखांकित करते हुए युवाजनों को संकल्प के साथ आगे आने का आह्नान किया। सत्र को सम्बोधित करने वालों में सी.पी.एफ. के कामरेड सतेन्द्र कुमार, जन सांस्कृतिक मंच के कामेश्‍वर प्रसाद ‘दिनेश’ के अलावा अरुण कुमार,  भूपनारायण सिंह, चन्द्रमोहन, मनोज कुमार वर्मा तथा तंग इनायतपुरी आदि प्रमुख थे। इस सत्र की अध्यक्षता सुमन गिरि, विनोद एवं कृष्णनन्दन सिंह के अध्यक्ष मण्डल ने की।

रात्रि आठ बजे सांस्कृतिक कार्यक्रम की शुरुआत जागृति सीवान के कलाकारों- दीपक कुमार,  स्नेहलता,  रश्मि कुमारी, विनोद कुमार, धनंजय कुमार ने बैनर गीत ‘ये वक्त की आवाज है- मिल के चलो’ तथा बी. प्रशान्त के गीत ‘घर घर में मचल कोहराम’ से हुई। साहेबगंज के अरुण कुमार, मोहम्मद तैय्यब, सोनू कुमार एवं साथियों ने भाव-नृत्य ‘बनस राजा के बिगड़ल काम’ तथा कव्वाली की प्रस्तुति से दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ी। उसके बाद गुरुशरण सिंह के नाटक ‘जंगीराम की हवेली’ की प्रभावी नाट्य प्रस्तुति अरुण कुमार व सोनू कुमार के निर्देशन में की गई। रात्रि एक बजे तक रजवाड़ा, हलीमपुर, खाड़ी पाकर, सीवान एवं छपरा के कलाकारों द्वारा जनसंस्कृति से लैस भाव-नृत्य, संगीत, नाटक एवं गीतों की प्रस्तुति को साहेबगंज के भूपनारायण सिंह की उद्घोषणा शैली ने सुदूर देहातों से आये श्रोताओं को बांधे रखा।
दूसरे दिन के समारोह में विशेष रूप से आमंत्रित ‘विकल्प’ अ.भा. जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा के महासचिव महेन्द्र नेह ने कहा कि वर्गीय समाज में साहित्य व कला का स्वरूप भी वर्गीय होता है। अतः सर्वहारा वर्ग के साहित्य व कला को आगे बढ़ाना हमारा प्राथमिक उद्देश्य है। दुनिया व हमारे देश की श्रेष्ठ परम्परा, विश्‍व-संस्कृति की धरोहर हमारी अपनी है। हमें तर्क-संगत ज्ञान व दर्शन की मात्र व्याख्या नहीं करनी, उसे सृजनात्मक व क्रियात्मक बनाना है। उन्होंने बिहार के मोर्चा से जुड़े कला-कर्मियों की सराहना करते हुए कहा कि वे वैश्‍वि‍क बाजारवादी सांस्कृतिक हमले और सामन्ती भाग्यवादी संस्कृति व तंत्र-मंत्र के विरुद्ध नये मनुष्य की संस्कृति रच रहे हैं। मोर्चा द्वारा अन्य सामाजिक संगठनों के साथ मिल कर सारण-अंचल, गया आदि में वर्ण व्यवस्था पर आधारित विवाह की परम्परागत पद्धति के स्थान पर जन विवाह पद्धति का विकास करके तथा श्राद्ध व पिण्डदान की परम्परा को निषेध करके नये सामाजिक-आंदोलन का सूत्रपात किया जा रहा है। उन्होंने साहित्यकारों व संस्कृतिकर्मियों से देश व दुनिया में चल रहे नये आंदोलनों से संस्कृतिकर्म को जोड़ने का आह्नान किया।

पटना से पधारे विशिष्ट अतिथि डॉक्‍टर अर्जुन तिवारी ने कहा कि मोर्चा द्वारा जिस सांस्कृतिक विकल्प की प्रस्तुति की जा रही है, उसका प्रसार पूरे देश में होना चाहिए। उन्होंने इस अवसर पर राहुल-नागार्जुन व यादवचन्द्र की त्रयी को स्मरण करते हुए कहा कि इन तीनों ने समाज से ऊँच-नीच का अंतर मिटाने के लिए सृजन किया। उन्होंने अंचल के महान जनसंस्कृतिकर्मी भिखारी ठाकुर को याद करते हुए कहा कि यह सम्मेलन नये इतिहास की रचना करेगा। मुजफ्फरपुर से आये जन सांस्कृतिक मंच के रंगकर्मी साथी कामेश्‍वर प्रसाद ‘दिनेश’ ने कहा कि मोर्चा बिहार के जन संस्कृतिकर्मियों की ताकत है। हम अन्य बिरादराना संगठनों के साथ मिलकर काम करें। इस सम्मेलन के जुझारू तेवर की धमक देश के अन्य हिस्सों में भी जानी चाहिये। सम्मेलन की दूसरी रात भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुतियों के साथ मशहूर शायर तंग इनायतपुरी के संयोजन में कवि-सम्मेलन व मुशायरे का आयोजन किया गया। इसकी अध्यक्षता राजस्थान से पधारे महेन्द्र नेह ने तथा उद्घाटन दिल्ली से पधारे शैलेन्द्र चौहान द्वारा किया गया। महत्वपूर्ण कवियों- सुभाषचन्द्र यादव, कृष्ण पुरी, मनोज कुमार वर्मा, विभाकर विमल, सत्येन्द्र नारायण, सत्येन्द्र नारायण चौधरी, रेखा चौधरी, वासुदेव प्रसाद, नरेन्द्र सुजन, कुमारी दीक्षा, दीपक कुमार, राधिका रंजन सुधीर, फहीम योगापुरी, डॉक्‍टर रवीन्द्र ‘रवि’ आदि द्वारा काव्य-पाठ किया गया।
सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में सीवान इकाई द्वारा यादवचन्द्र द्वारा लिखित नाटक ‘जॉब वैकेंसी’,  गया के रंगकर्मियों द्वारा प्रेमचन्द की कहानी ‘सद्गति’ का नाट्य-रूपांतरण एवं मालीघाट इकाई द्वारा ‘मशीन’ नाटक की सफल प्रस्तुतियाँ दी गईं। सारण के कलाकारों द्वारा भोजपुरी में ‘हमनी के सुधार कइसे होई’ की मधछोड़वा-शैली में बेजोड़ प्रस्तुति की गई। सीवान के रंगकर्मियों द्वारा सुप्रसिद्ध गायक व संगीतकार दीपक के नेतृत्व में गण-संगीत के साथ फैज अहमद ‘फैज’, अदम गोंडवी,  दुष्यंत कुमार, गोरख पाण्डेय, महेन्द्र नेह, बी प्रशांत आदि जन-गीतकारों की रचनाओं को श्रोताओं द्वारा बेहद सराहा गया।
दिल्ली से पधारे ‘विकल्प’ के अलि‍ख भारतीय सचिव प्रसिद्ध साहित्यकार एवं मुख्य अतिथि शैलेन्द्र चौहान ने कहा कि साम्राज्यवादी ताकतों ने दुनियाभर में जो आर्थिक शोषण तंत्र फैलाया है, उसे ‘विकास’ का नाम दिया जा रहा है। इस शोषण तंत्र के पीछे अत्याधुनिक हथियारों द्वारा विश्‍व जन-गण पर किये जा रहे हमलों के साथ-साथ मीडिया द्वारा अहर्निश किया जा रहा सांस्कृतिक हमला भी शामिल है। उन्होंने कहा कि आज जब देश की राजनीति विश्‍वसनीयता खोती जा रही है, संस्कृतिकर्मियों को पहल करके जनता के साथ खड़ा होना और राह दिखाना होगा। उन्होंने सांस्कृतिक-कार्यक्रमों एवं साहित्य के स्तर व शिल्प को भी पूँजीवादी कला-साहित्य के मुकाबले ऊँचा उठाने की आवश्यकता पर बल दिया।
इस सत्र को सम्बोधित करते हुए एम.सी.पी.आई. (यू) के महासचिव कामरेड विजय चौधरी ने कहा कि आज बाजारवाद की चकाचौंध से निकलकर हमारे कलाकार जीवन आपदाओं से जूझती जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करें, यही वक्त की पुकार है। सम्मेलन में भाग ले रहे बिहार के विभिन्न हिस्सों से आये करीब दो सौ प्रतिनिधियों एवं कलाकारों ने महासचिव द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पर अपना मत व्यक्त किया तथा आगामी समय की कार्ययोजना तय की गई।
अंतिम दौर के सत्र में सम्मेलन ने अगली अवधि के लिए राज्य कमेटी का गठन किया।
सम्मेलन में डॉ. रवीन्द्र कुमार ‘रवि’ के सम्पादन में प्रकाशित स्मारिका का विमोचन विशिष्ट अतिथि डॉ. अर्जुन तिवारी द्वारा किया गया। सत्रारम्भ में आगन्तुकों का अभिनन्दन स्वागत मंत्री रमाशंकर गिरि ने किया और धन्यवाद ज्ञापन दीपक कुमार ने। स्वागताध्यक्ष काशीनाथ सिंह ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि सम्मेलन निश्‍चि‍त ही बाजारवादी साम्राज्यवादी संस्कृति के मुकाबले लोक व जन-संस्कृति की श्रेष्ठता को प्रमाणित करेगा तथा इससे देश के जनपक्षधर साहित्यकारों व कला-कर्मियों के बीच नया संदेश जायेगा।
प्रस्तुति: दीपक कुमार और  उदय शंकर ‘गुड्डू’

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – अंतिम भाग

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – अंतिम भाग
शिवराम

( शिवराम का भारतीय समाज के संदर्भों में जनसंस्कृतियों की विकास-अवस्थाओं और साम्राज्यवादी अपसंस्कृतिकरण पर लिखा गया यह महत्त्वपूर्ण आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है अंतिम भाग. )

देखिए : जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति :
पहला भाग, दूसरा भाग, तीसरा भाग

उच्च स्तरीय वैश्विक संस्कृति का निर्माण दुनिया के समाजवादी वैश्वीकरण के भविष्य की कोख में पल रहा है। और उसके लिए जरूरी है कि विभिन्न मानव सभ्यताओं द्वारा अर्जित सांस्कृतिक श्रेष्ठ की, ज्ञान-विज्ञान के श्रेष्ठ की, इतिहास की हिफाजत की जाए। वही उच्च कोटि की मानवीय समाजवादी वैश्विक संस्कृति का आधार बनेंगे। हजारों फूलों के बीजों को बचाया जाए ताकि भविष्य के बगीचे में हजारों फूल अपने रंगों और रूपों की छटा बिखेरते हुए साथ-साथ महकें-दमकें। समाजवादी निर्माण के प्रयत्नों में मिली पराजय और विफलताएं घोर निराशा का कारण नहीं होनी चाहिएं। दुनिया की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्थाओं में आमूल-चूल परिवर्तन, एक शोषण विहीन संस्कृति का निर्माण, एक नये समाजवादी जनतांत्रिक मनुष्य का निर्माण जो हर प्रकार के व्यक्तिवाद से मुक्त हो, एक झटके में ही सम्भव नहीं हो जाएगा। असफलताओं और पराजयों की श्रृंखला को पार करके ही निर्णायक सफलताएं और विजय हासिल होती हैं।

विचारधारा और दर्शन के क्षेत्र में वह एक ओर तो ‘विचारधारा के अंत’ की घोषणा करता है दूसरी ओर ‘उत्तर आधुनिकतावाद’ और ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की विचारधारा लेकर आता है। वह मार्क्सवाद को भी वि्कृत करता है। वह वैश्वीकरण-उदारीकरण- निजीकरण और एक ध्रुवीय दुनिया की विचारधारा लेकर आता है। वह साम्राज्यवाद की विकल्पहीनता ‘देयर इज नो आल्टरनेटिव’ लेकर आता है। वह सामाजिक अनुशासनों को ध्वस्त करने और समाज विरोधी व्यक्तिवादी स्वच्छंदता का विचार लेकर आता है। वह निष्कर्ष विहीन अनन्त विमर्श की विचारधारा लेकर आता है। कुल मिलाकर वह विचारधारा के क्षेत्र में संभ्रमों और विभ्रमों की दुनिया रचता है। विचार शून्यता और चिन्तनहीनता की स्थिति पैदा करता है। वास्तविकता को भ्रम और भ्रम को वास्तविक बनाकर पेश करने की विचारधारा लेकर आता है। वह ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा करता है और ‘फुनगियों की ओर बढ़ने’ का नहीं ‘जड़ों की ओर लौटने’ का आह्नान करता है। अतीतोन्मुखता को जगाता है, अज्ञान, अंधविश्वास और धर्म के पाखण्ड में आस्था जगाता है। उसकी समस्त विचारधाराएं, सभी दर्शन, दुनिया की हजारों साल में अर्जित संस्कृति के श्रेष्ठ को विकृत करने की जंग छेड़े हुए है।

वह धर्मों और नस्लों के बीच विग्रह, विघटन, दंगे और युद्ध छेड़ने के षड़यंत्र रचता है। सभ्यताओं के संघर्ष का हटिंगटन का दर्शन विभिन्न संस्कृतियों को परस्पर युद्धरत करने का विध्वंसक दर्शन है। वह मानव अधिकारों की बात करता है लेकिन मानवता के विरूद्ध पतन की सभी सीमाओं को लांघ जाता है। वह मानव अंगों के अमानवीय अपहरण और व्यापार तक ही सीमित नहीं रहता, नर मांस भक्षण, नर शिशु मांस भक्षण और नर भ्रूण मांस भक्षण के स्वादों के भोग तक जाता है। मनुष्य के उत्कृष्ट सौन्दर्यबोध को ध्वस्त कर, निकृष्ट भोग बोध जगाता है। मूल्यविहीन संवेदनहीन भोगवादी मानसिकता ही उसके लिए उपभोक्ता समाज का निर्माण करेगी। साम्राज्यवादी संस्कृति, संस्कृति का नहीं विकृतियों का संसार रच रही है। कलाओं की दुनिया में वह अनुभव, विचार, मूल्य, संवेदना और ज्ञान को विस्थापित करने को प्रवृत्त होती है। वह तकनीक, सूचना, शिल्प-कौशल, भाषाई चमत्कार, अर्थहीनता, कोरी काल्पनिकता और निरर्थक अमूर्तन की दिशा में प्रवृत्त करती है। सामाजिक यथार्थ और ज्ञानात्मक संवेदना तथा संवेदनात्मक ज्ञान को हतोत्साहित, उपहासित और तिरस्कृत करती है।

साम्राज्यवादी संस्कृति, साहित्य और कलाकर्म को व्यापारिक और बाजारवादी दृष्टिकोण से युक्त करती है। बाजार यानी तिकड़म, विज्ञापन कौशल, लाभ- हानि का गणित। रूपवाद और कलावाद तो पहले भी थे, अब वह ऐसे रूपवाद को पोषित करती है जो घटिया वस्तु तत्व के भी बढि़या होने का भ्रम पैदा करे। रचना-रूप से भी ज्यादा महत्वपूर्ण अब पैकिंग और प्रस्तुति का रूप है। पैकिंग का सौन्दर्य, पैकिंग का शिल्प, पैकिंग का रूप विधान। इस सबके ऊपर माल खपाने और लाभ कमाने का कौशल। ज्ञान, साहित्य और कलाओं को लोक से, जन साधारण से विलग करती है।

साम्राज्यवादी संस्कृति कलाकर्मियों को सम्पादकों-प्रकाशकों को टैकल करने की कला सिखाती है। पुरस्कार प्रदाताओं और सम्मानदाताओं से सम्मान प्राप्त करने, खरीदने के गुर सिखाती है। कला कर्म का उद्देश्य धनार्जन और यशार्जन है, यह सिखाती है। सामाजिक दायित्व बोध मूर्खता है,  उसका उपहास-तिरस्कार करती है।

यह गौर करने योग्य बात है कि आजकल दूरदर्शन चैनलों पर अधिकतर मुख्य कार्यक्रम उबाऊ, निरर्थक और फालतू लगते हैं, कलाहीन और सौन्दर्यविहीन, लेकिन ‘एड’ यानी विज्ञापन कितने कलात्मक आ रहे हैं। सारी कलाएं, क्या अभिनय, क्या संगीत, सब विज्ञापन के लिए समर्पित। विज्ञापन जो झूठ की चित्ताकर्षक प्रस्तुति होती है। स्त्री देह के उत्तेजक उभार, उसकी नग्नता, तक ही बात नहीं है। विकसित और साम्राज्यवादी जगत में पोर्न, ब्लू फिल्में आम हो गई हैं। इंगलैंड की एक सर्वे रिपोर्ट है कि वहां 98 प्रतिशत महिलाएं पोर्न और ब्लू फिल्में देखती हैं ( पुरुषों की तो बात छोडि़ए ), चौंकाने वाली ही नहीं डराने वाली भी है। यह है साम्राज्यवादी संस्कृति और उसकी महानता, जिसके नशें में हमारा अभिजन समाज डूबा जा रहा है।

शिक्षा संस्कृति का मुख्य आधार है। हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद की शिक्षा नीति से खूब परिचित हैं कैसे उस शिक्षा पद्धति ने हमारे समाज की मानसिकता को उपनिवेशीकृत किया। सामंती युग में हमने देखा उनकी शिक्षा पद्धति ने कैसे लोगों में सामंती शोषण और वर्णव्यवस्था के दिल दहलाने वाले अत्याचारों को सहने के अनुकूल मानसिकता बनाई गई। आज भी पिछले जन्मों के कर्मफल में उसका विश्वास टूटा नहीं है। वह सामंती-पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न को ईश्वर का विधान और पिछले जन्म के कर्मों का फल मानकर और अगले जन्म को सुखी बनाने के लिए सहता रहता है। उसकी इस विकट सहनशीलता को देखकर कठोर हृदयी मनुष्य की भी संवेदना जाग जाती है, उसकी करूणा द्रवित हो उठती है। वह उनके पक्ष में सोचने लगता है। लेकिन शोषित-पीडि़त जन सहर्ष सब सहे जा रहे हैं। भाग्य का विधान ही ऐसा है। साम्राज्यवादी संस्कृति भी ऐसी शिक्षा पद्धति का प्रसार करती है।

हैरी कैली, दि मॉडर्न स्कूल इन रिट्रास्पेक्ट ( 1925 ) में कहते हैं - ‘‘सार्वजनिक विद्यालय प्रणाली व वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को स्थायी बनाने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण है...बच्चे को शिक्षा दी जाती है ताकि वह सत्ता के नीचे झुके, दूसरों की इच्छा के अनुसार काम करने की आदत डाले, फलतः उसके मन की कुछ ऐसी आदतें बन जाती हैं, जिनका उसके वयस्क जीवन में शासक वर्ग पूरा लाभ उठाता है।’’ मार्टिन कारनाय की पुस्तक ‘‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और शिक्षा’’ ( अनुवादक कृष्णकांत मिश्र ) इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। मार्टिन कारनाय कहते है कि - ‘‘पश्चिमी तर्ज की औपचारिक शिक्षा अधिकांश देशों में मुक्ति का साधन न बन कर केवल साम्राज्यवादी प्रभुत्व का उपकरण बनी। यह शिक्षा साम्राज्यवाद के लक्ष्यों के अनुरूप थी....’’, वे आगे कहते हैं - ‘‘हमारा विश्वास है कि ज्ञान का भी उपनिवेशीकरण किया गया। उपनिवेशीकृत ज्ञान समाज के सोपानात्मक ढांचे को स्थाई बनाता है।’’

सुसांत गुणतिलक की पुस्तक ‘‘पंगु मस्तिष्क - शिक्षा पर औपनिवेशिक संस्कृति का दबाव’’ ( अनुवाद - स्वयं प्रकाश ) इस विषय पर एक और महत्वपूर्ण शोधपूर्ण पुस्तक है। सुसांत गुणतिलक पुस्तक की भूमिका में कहते है - ‘‘आम तौर पर व्यापारिक, औद्योगिक और मौजूदा नव औपनिवेशक रूपों में प्रकट होने वाले विभिन्न आर्थिक हमलों के माध्यम से पिछले पांच सौ वर्षों के यूरोपीय विस्तार ने प्रायः सारी दुनिया को सांस्कृतिक स्तर पर लगभग पूरी तरह आच्छादित कर लिया है। इस सांस्कृतिक एकछत्रता ने स्थानीय संस्कृति, स्थानीय कलाओं तथा वैध और प्रासंगिक विज्ञानों की स्थानीय प्रणालियों का दमन किया है और इसका परिणाम एक वास्तविक सांस्कृतिक आनुवंशिक सफाए के रूप में सामने आया है। यूरोपीय संस्कृति का आधिपत्य बढ़ने के साथ ही विविधता और मौलिकता, कलाएं और गैर यूरोपीय मूल के विचार गायब हैं। संस्कृति आवेष्टित हो रही है और सुगम्य रूपों में परोसी जा रही है।’’ वे इस पुस्तक में ‘सांस्कृतिक एकछत्रता की छानबीन’ करते हैं। ‘औपनिवेशिक विश्व की स्थापना से पहले यूरोप के बाहर की सांस्कृतिक दुनिया की छानबीन’ करते हैं। ‘औपनिवेशिक संस्कृति के वाहक के रूप में प्रविधि की भूमिका की शिनाख्त करते हैं और ‘सांस्कृतिक स्तर पर उपनिवेशीकृत राष्ट्रों के कपट प्रबंध’ की पहचान कराते हैं।

वर्तमान में औद्योगिक प्रबंधन और उच्च सूचना तकनीक की शिक्षा का अभियान अपने लिए उपयोगी कार्मिकों की भीड़ खड़ी करने का एक ऐसा ही अभियान है। वे अलगाव, असंलग्नता, तटस्थता और सहनशीलता सिखाती है। मनुष्य के स्व-विवेक और स्व-निर्णय की प्रवृत्ति को समाप्त करती है। उसे विचारहीन संस्कृतिविहीन बनाती है। साम्राज्यवादी संस्कृति हमारे बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का उपनिवेशीकरण करती है।

सवाल सिर्फ यही नहीं है कि हमारी संस्कृति को हम साम्राज्यवादी संस्कृति द्वारा किए जा रहे ध्वंस से कैसे बचाएं? सवाल यह भी है कि हम हमारी संस्कृति को साम्राज्यवादी संस्कृति बनाये जाने और उसे दूसरी नस्लों या जातीयताओं की संस्कृति को नष्ट करने के उपकरण बनाए जाने से भी कैसे बचाएं?

मानव समाज, कबीलाई जन संस्कृतियों से शुरु होकर जनपदीय, जातीय और बहुराष्ट्रीय जातीय अवस्थाओं से गुजरता हुआ अब वैश्विक संस्कृति की ओर अग्रसर है। यह मानव समाज, विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है, इसे रोका नहीं जा सकता। देखना यह है कि साम्राज्यवादी वर्चस्व के अंतर्गत वैश्विक संस्कृति और विश्व समाज अथवा समाजवादी-जनवादी वैश्विक संस्कृति और वैश्विक समाज।

साम्राज्यवादी पूंजीवाद राष्ट्र राज्यों, जातीय संस्कृतियों और विभिन्न भाषाओं को कुचलता हुआ एक ऐसी दुनिया का निर्माण करने में लगा है जिसकी संस्कृति शोषण-उत्पीड़न-विस्थापन पर आधारित एक गैर जनतांत्रिक, अमानवीय, अपसंस्कृति होगी। भोगवाद और वर्चस्ववाद जिसकी मुख्य प्रवृत्ति होंगी। वित्तीय पूंजी के वर्चस्व तले एक गुलाम दुनिया। अनिश्चय और असुरक्षा के आतंक के साये में जीती तनावग्रस्त सभ्यताएं। हिंसा-नशा-भोग, संवेदनहीनता-असहिष्णुता-अलगाव। युद्ध और आतंक। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण एक उच्च विकासशील वैश्विक संस्कृति की ओर अग्रसर नहीं है बल्कि एक पतनशील और संकीर्ण वैश्विक अपसंस्कृति की ओर अग्रसर है।

एक स्वस्थ समृद्ध उन्नतशील उच्च मानवीय वैश्विक संस्कृति वैश्विक समाजवादी व्यवस्था के अंतर्गत स्वरूप ग्रहण करेगी। एक शोषण विहीन समतावादी वैश्विक व्यवस्था में ही यह सम्भव होगा।

विविध संस्कृतियों को विस्थापित और विखण्डित कर वर्चस्ववादी एकरूपता स्थापित करती हुई वैश्विक संस्कृति नहीं, बल्कि ऐसी वैश्विक संस्कृति जो विविध संस्कृतियों का संघबद्ध समाजवादी जनवादी गुलदस्ता हो, होना चाहिए।
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( समाप्त )
 
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jansanskrutiyan aur samrajyavadi sanskruti– shivaram.pdf

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आलेख – शिवराम

सोमवार, 26 सितंबर 2011

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – तीसरा भाग

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – तीसरा भाग
शिवराम
 
( शिवराम का भारतीय समाज के संदर्भों में जनसंस्कृतियों की विकास-अवस्थाओं और साम्राज्यवादी अपसंस्कृतिकरण पर लिखा गया यह महत्त्वपूर्ण आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है तीसरा भाग. )

देखिए : जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति : पहला भाग, दूसरा भाग

हिन्दी भाषा और हिन्दी जातीयता के प्रभुतावादी व्यवहार का भय फैलाए जाने ने भारत की विभिन्न जातीयताओं के एक संघीय बहुराष्ट्रीय आधुनिक महाजाति के निर्माण में भारी बाधा पहुंचाई है। ‘हिन्दु राष्ट्रवाद’ और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का उसका चिन्तन साम्राज्यवादी चिन्तनधारा का ही विष बीज है। जो हिन्दु-मुस्लिम धार्मिक अंतर्विरोधों और भारतीय जातीयताओं के बीच अविश्वसनीयता और संदेह को तीव्र कर साम्राज्यवाद की ही मदद करता है। यह भारतीय शासकों के फासीवादी-साम्राज्यवादी भविष्योन्मुखी मंतव्यों की भी अभिव्यक्ति है। राज्यों के साथ भेदभाव और उनके असमान विकास ने इस ऐतिहासिक दायित्व के पूरा होने में दूसरी बड़ी बाधा खड़ी की है। शासक वर्गों द्वारा संघीय गणराज्य के अंतर्गत राज्यों के जनतांत्रिक अधिकारों के दमन ने इस कार्य में तीसरी बड़ी बाधा उत्पन्न की है। क्षेत्रिय राजनैतिक दलों का उदय इन्हीं परिस्थितियों की उपज है। शासक वर्गों की सुकेन्द्रित संघीय राज्य सत्ता निरंतर क्षीण हुई है। इन स्थितियों ने भी साम्राज्यवाद के आर्थिक राजनैतिक षड़यंत्रों और साम्राज्यवादी अपसंस्कृति के प्रसार के लिए उपजाऊ जमीन बनाई है।

हमें साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण को अलग-अलग जनपदीय संस्कृतियों के बरअक्स अलग-अलग रूपों के साथ संघबद्ध बहुराष्ट्रीय महाजातीयता के बरअक्स भी देखना चाहिए और साथ में यह भी देखना चाहिए कि राष्ट्रीय संघबद्ध महाजातीयताओं के अंतर्विरोधों का साम्राज्यवादी संस्कृति कैसे अपने हित में उपयोग करती हैं और उसकी अलग-अलग राष्ट्रीय जातीयताओं और जनपदों की संस्कृति के बरअक्स क्या व्यवहार करती है। विखंडनवादी नजरिया भी तो साम्राज्यवादी संस्कृति का ही एक नजरिया है, जिसका वह उपयोग कर रही है।

हमें देखना चाहिए कि हमारे छोटे-छोटे जनपद अलग-अलग रूप से साम्राज्यवादी संस्कृति के आक्रमण का मुकाबला नहीं कर सकते। यदि साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण का मुकाबला करना है तो हमें हमारी बहुराष्ट्रीय संघबद्ध महाजातीयता को एकताबद्ध करना होगा। हिन्दी भाषी जातीयता को भी जनपदों और राज्यों की भौगोलिक सीमा से ऊपर उठकर एकताबद्ध होना होगा। हिन्दी जातीयता को प्रभुतावादी सामंती मानसिकता से बाहर निकालना होगा। हिन्दी जातीयता को अन्य भारतीय जातीयताओं में जनतांत्रिक व्यवहार का विश्वास जगाना होगा। यह वास्तविकता है कि वह भारत की बहुराष्ट्रीय संघबद्ध महाजाति की सबसे बड़ी जातीयता है और अतीत में तथा वर्तमान में भी उसने ही साम्राज्यवादी राजनैतिक-सांस्कृतिक आक्रमणों को सर्वाधिक झेला है। भविष्य में भी उसे ही झेलने होंगे। हिन्दी भाषी जातीयता का यह ऐतिहासिक दायित्व है कि वह साम्राज्यवादी उपनिवेशीकरण के इस दौर के आक्रमण के विरूद्ध जिम्मेदार भूमिका निभाए।

यह उसी का दायित्व था और आज भी यह उसी का दायित्व है कि वह भारत की समस्त जातीयताओं की वृहद बहुराष्ट्रीय संघबद्ध महाजाति के निर्माण प्रक्रिया को आगे बढ़ाए और पूरा करे। यह प्रभुत्ववादी दृष्टिकोण और आचरण से नहीं जनतांत्रिक संघवादी आचरण से ही सम्भव है। इसलिए विभिन्न हिन्दी भाषी प्रदेशों और जनपदों के बीच यह दायित्व बोध जागृत होना चाहिए। यही दायित्व बोध उन्हें एकता के रास्ते पर ले जाएगा। धर्म और भाषा की साम्प्रदायिकता को केन्द्र में लाया जाना मतभेदों को तीव्र करना है।

व्यवहार में जन साधारण के बीच, श्रमजीवी समाज के बीच, व्यवसायियों-व्यापारियों के बीच हिन्दी का प्रयोग निरंतर व्यापक हो रहा है। वह विभिन्न जातीयताओं के बीच सम्पर्क भाषा के रूप में किसी भी अन्य भारतीय भाषा की तुलना में अधिक स्वीकार्य हुई है। हिन्दी जातीयता की प्रभुत्ववादी आशंकाओं के कारण अन्य भारतीय जातीयताएं राज-काज और सम्पर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी का पक्ष ग्रहण करती हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि अंग्रेजी विभिन्न भारतीय जातीयताओं के अभिजन समाज की ही सम्पर्क भाषा है। ज्यादा से ज्यादा थोड़ा बहुत मध्य वर्ग के ऊपरी संस्तरों तक उसका प्रसार माना जा सकता है। अंग्रेजी की इस स्थिति ने भारत में एक मार्शल समाज का निर्माण जरूर कर दिया है जिसके लिए राज-काज के प्रमुख पद आरक्षित हैं।

साम्राज्यवादी संस्कृति के वर्तमान दौर के लिए भारत की यह भाषाई स्थिति बहुत लाभदायक सिद्ध हो रही है। उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण और अत्यधिक महंगी होने के कारण वह उच्च मध्य वर्ग और अभिजन समाज के लिए आरिक्षत हो गई है। इस स्थिति ने भारतीय समाज में एक अलग तरह का भाषाई और सांस्कृतिक विभाजन उपस्थित कर दिया है जिसका वर्गीय स्वरूप भी है।

साम्राज्यवाद का आर्थिक आक्रमण मुख्य रूप से अभी श्रमजीवी जनगण के विरूद्ध केन्द्रित है। मजदूर और किसान तथा उनकी युवा पीढ़ी इस आक्रमण से तबाह हो रहे हैं। जबकि मध्य वर्ग के ऊपरी संस्तर और अभिजन समाज, साम्राज्यवादी लूट का एक हिस्सा प्राप्त करके खुशहाल हो रहा है। यही नव औपनिवेशिक विकास है। यही ‘भारत के महाशक्ति बनने’ का अनोखा भ्रम है।

साम्राज्यवादी संस्कृति अपने रंगरूट इसी वर्ग से भर्ती करती है। साम्राज्यवाद द्वारा संचालित एन.जी.ओ.’ज इन्हीं रंगरूटों के माध्यम से मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के आदर्शवादी मानवीय मन वाले प्रतिभाशाली बेरोजगार युवक-युवतियों को अपनी सेवा में लगा रहे हैं। उनकी श्रमजीवी जनगण के पक्ष में वास्तविक सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता बनने की स्वाभाविक प्रक्रिया को भंग करके उन्हें आभासी कार्यकर्ता बना कर छोड़ देते हैं। नव धनाढ्य उच्च और मध्य वर्ग उसकी भोगवादी उपभोक्ता संस्कृति और बाजारवादी संस्कृति का वाहक है।

एन.जी.ओ.’ज केन्द्रीय मुद्दों पर छिड़ने वाले वर्ग संघर्षों को हाशिए पर डालने और अन्य मुद्दों को केन्द्र में लाने की भूमिका अदा करते हैं जैसे साक्षरता, पर्यावरण, स्वास्थ्य आदि। वे शिक्षा, साम्प्रदायिक सद्भाव, आदिवासी विस्थापन, बाल श्रम और असंगठित श्रमिकों के लिए भी काम करते दिखाई देते हैं। यह भी आभासी संघर्ष, आभासी अभियान होते हैं। जिनका ‘डॉक्यूमेन्टेशन’ बड़ा प्रभावशाली होता है लेकिन जिनके काम और प्रभाव डॉक्यूमेन्टेशन लायक भी महत्वपूर्ण नहीं होते। वास्तविकता का आभासी से विस्थापन भी साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण का एक हथियार है। गौर से देखा जाए तो उनका यह मानवीय व्यवहार उपभोक्तावादी समाज के विस्तार का ही साम्राज्यवादी उपक्रम है।

वे जन-आंदोलनों के गैर-राजनीतिक रहने का दर्शन गढ़ते हैं और जनांदोलनों के क्रांतिकारी राजनीति से अलगाव हेतु सायास प्रयत्न करते हैं। वे संसदीय राजनीति से मोह भंग को एक ऐसे राजनीतिक शून्य में बदलने की कोशिश करते हैं जिसका कोई क्रांतिकारी विकल्प सम्भव नहीं दिखाई दे। क्रांतिकारी विचारधारा को सुधारवादी विचारधारा के विभ्रमों से युक्त करना और क्रांतिकारी शक्तियों को सुधारवादी सक्रियता में लिप्त कर देना भी साम्राज्यवादी संस्कृति की रणनीति है, जिसे वह अनेक विचारधारात्मक विमर्शों के जरिये अंजाम दे रही है। नव मार्क्सवाद, उत्तर आधुनिकतावाद, विखंडनवाद आदि उसके ऐसे ही विमर्श हैं। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की क्रांतिकारी धार का लगातार भोंथरे होते जाना और उसमें संसदीय वामपंथी-सामाजिक जनवादी प्रवृत्तियों का विस्तार, जो स्वयं को विद्यमान साम्राज्यवादपरस्त पूंजीवादी व्यवस्था का बेहतर प्रबंधक सिद्ध करने को लालायित दिखाई देते हैं, इस तथ्य का द्योतक है कि साम्राज्यवादी रणनीति किस तरह प्रभावी हो रही है।

जिस प्रकार विमर्शवाद निष्कर्षविहीन अनन्त विमर्श की संस्कृति पैदा करता है और मुक्ति संघर्षों के चिंतन को विस्थापित करता है। वैसे ही एन.जी.ओ. संस्कृति क्रांतिकारी चेतना से पूर्णतया मुक्त गैर राजनैतिक यथास्थितिवादी-सुधारवादी-आभासी जनआंदोलनों की संस्कृति पैदा करती है। दलित मुक्ति, नारी मुक्ति, आदिवासी मुक्ति के संघर्षों को नपुंसक विमर्शों में बदला जा रहा है, वर्गीय विमर्शों को विस्थापित किया जा रहा है और हमारी अनेक प्रगतिशील, जनवादी पत्रिकाएं भी इसमें लिप्त हो गई हैं।

साम्राज्यवादी संस्कृति के आक्रमण की रणनीति को समझने के लिए कार्ल मार्क्स और नोम चोमस्की के निम्नांकित दो उद्धरण गौरतलब है - ‘‘पूंजीवादी सभ्यता की आंतरिक बर्बरता और उसकी गहरी धूर्तता हमारी आंखों के सामने खुली पड़ी है। अपने घर में वह अच्छे रूप धारण कर लेती है, उपनिवेशों में वह नंगी होकर घूमती है।’’ - कार्ल मार्क्स। यह मार्क्स ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 पर अपनी प्रतिक्रिया ‘दी फर्स्ट इण्डियन वार ऑफ इन्डिपिन्डेंस’ में कहा था। आज का साम्राज्यवाद तो तब के साम्राज्यवाद से कहीं अधिक कुटिल और क्रूर है। ‘‘अमेरिका अपना साम्राज्य उसी ढंग से फैलाना चाहता है जिस ढंग से कभी उसने अमेरिका को बसाते समय अमेरिका के लाखों मूल निवासियों को मौत की नींद में सुला दिया था।’’ - नोम चोमस्की। नोम चोमस्की का यह बयान वर्तमान साम्राज्यवाद की बर्बरता को लक्षित करता है।

लेकिन उस दौर के साम्राज्यवाद और वर्तमान साम्राज्यवाद की अंतर्वस्तु में पूंजीवादी होते हुए भी काफी भिन्नताएं है। पहले वह दुनिया का बंटवारा करने के लिए संघर्षरत-युद्धरत हुआ था अब वह एकध्रुवीय होकर सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने को संघर्षरत-यु्द्धरत है। पहले वह राजनैतिक वर्चस्व स्थापित करता आता था। उपनिवेशों की जनता को साफ दिखाई देता था कि किसी ने उन्हें गुलाम बना लिया है। अब वह पहले आर्थिक आधिपत्य जमाता है, साथ में सांस्कृतिक वर्चस्व का अभियान छेड़ता है, परोक्ष राजनैतिक आधिपत्य बाद में जमाता है। अब उसके पास सूचना तंत्र का सांस्कृतिक महाआयुध है जो पहले नहीं था। पहले भी वह वित्तीय पूंजी का ध्वजाधारी था अब भी वह वित्तीय पूंजी का ध्वजाधारी है, लेकिन वित्तीय पूंजी का चरित्र अब पहले से काफी बदल गया है। अब वह अनुत्पादक सटोरिया जुआरी वित्तीय पूंजी अधिक है, उत्पादक कम। वह प्राकृतिक संसाधन, मानव संसाधन और बाजार, तीनों का दोहन पहले भी करती थी, अब भी करती है। परन्तु अब वह बहुत अधिक तीव्र है।

अब वह मरणासन्न अवस्था के अंतिम चरण में है उसके पास मानव सभ्यता को देने के लिए बर्बरता, तबाही और युद्ध के सिवाय कुछ भी नहीं बचा है। वह अब तक जन्मे सभी निकृष्ट और पतित मूल्यों-आचरणों का वाहक बन गया है। प्रगतिशलीलता के नाम पर अब उसके पास कुछ भी शेष नहीं है। पहले वह ‘फासीवाद’ की विचारधारा के साथ आया था, अब भी वह फासीवाद के सारतत्व को अमली जामा पहना रहा है, लेकिन और अधिक क्रूरता और बर्बरता के साथ। नस्लों को कुचलता, राष्ट्रीय राज्यों की सम्प्रभुता को नेस्तनाबूत करता और उन्हें गुलाम बनाता, मजदूर वर्ग को अधिकार विहीन गुलाम बनाता, विभिन्न सभ्यताओं के बीच संघर्ष फैलाता। उसने दुनिया को आतंकवाद का तोहफा दिया है। जो उसके विरूद्ध लड़ता हुआ दिखता है लेकिन जो उसके लक्ष्यों में उसका मददगार साबित होता है।

सामंती साम्राज्यवादी संस्कृति भी अन्य संस्कृतियों के साथ वर्चस्ववादी व्यवहार करती थी लेकिन पूंजीवादी साम्राज्यवादी संस्कृति का व्यवहार अधिक आक्रामक, विघटनकारी और विनाशकारी है। सामंती साम्राज्यवाद का लक्ष्य जनपदीय संस्कृतियों को लघु जातीय संस्कृति और लघु जातीय संस्कृतियों को राष्ट्रीय जातीय संस्कृतियों में विकसित करना था। इसलिए वह अन्य संस्कृतियों को नष्ट नहीं करता था बल्कि उनके श्रेष्ठ को संजोता था और कुल मिलाकर एक बड़ी-व्यापक उच्च स्तरीय संस्कृति का निर्माण करता था। पूंजीवादी साम्राज्यवाद उच्च स्तरीय वैश्विक संस्कृति के निर्माण के लिए बिल्कुल प्रस्तुत नहीं होता। वह अपनी भोगवादी पतनशील संस्कृति का वर्चस्व स्थापित करने और अन्य राष्ट्रीय जातीयताओं की संस्कृति के विखण्डन और विनाश के लिए उद्धत होता है। संस्कृति को मुनाफे के लिए व्यापार की एक वस्तु बना देता है। साम्राज्यवादी संस्कृति, दुनिया की सांस्कृतिक विविधता को नष्ट कर देने को उद्धत है। वह उसे वि्कृत और विस्थापित करने को उद्धत है।

( अगली बार – लगातार – अंतिम भाग )
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आलेख – शिवराम

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – दूसरा भाग

जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति – दूसरा भाग
शिवराम
 
( शिवराम का भारतीय समाज के संदर्भों में जनसंस्कृतियों की विकास-अवस्थाओं और साम्राज्यवादी अपसंस्कृतिकरण पर लिखा गया यह महत्त्वपूर्ण आलेख इसकी लंबाई को देखते हुए यहां चार भागों में प्रस्तुत किया जा रहा है. प्रस्तुत है दूसरा भाग. )
 
देखिए : जनसंस्कृतियाँ और साम्राज्यवादी संस्कृति : पहला भाग

अब जब दुनिया अमेरिकन साम्राज्यवाद के आर्थिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक हमले की चपेट में है और भारत भी इस हमले का शिकार है, हमें समझना चाहिए कि भारत एकताबद्ध राष्ट्र राज्य के रूप में ही पूंजीवादी साम्राज्यवाद के वर्तमान हमले का मुकाबला कर सकता है। शासक वर्ग इस एकता के प्रति बेहद लापरवाह है। भाषावार राज्यों का गठन हुआ और राष्ट्रीय राज्य में गणसंघीय स्वरूप को संवैधानिक मान्यता भी दी गई लेकिन विभिन्न जातीयताओं और भाषाओं के साथ भेदभाव रहित न्याय नहीं किया गया। शासक वर्ग अपने राजनैतिक नियंत्रण और आर्थिक लाभ के अनुरूप भेदभावपूर्ण नीतियां अपनाता रहा।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर साम्प्रदायिक फासीवाद ने धार्मिक आधार पर सामाजिक अलगाव को चिन्ताजनक स्थिति में पहुंचा दिया है। राज्य सरकारों को विदेशी साम्राज्यवादी सरकारों और साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से सीधे समझौते करने और अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी वित्तीय संस्थाओं से सीधे ऋण लेने की छूट सुकेन्द्रित राष्ट्र राज्य को कमजोर ही नहीं करता, साम्राज्यवाद को हमारे जातीय अंतविरोधों को बढ़ाने का अवसर भी प्रदान करता है। भारतीय शासक पूंजीपति वर्ग, साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ बनाए हुए है और वह उसे आगे बढ़ा रहा है। विभिन्न जातीयताओं के साथ भेदभाव और उनकी सांस्कृतिक पहचान तथा विकास की चिन्ताओं को गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है। विभिन्न राज्यों के असमान विकास की स्थितियां भी विभिन्न जातीयताओं के बीच वैमनस्यपूर्ण अंतर्विरोधों को बढ़ा रहे हैं। ये स्थितियां हमें साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के समक्ष कमजोर स्थिति में खड़े किए हुए हैं।

जनपदीय संस्कृतियां, जातीय संस्कृतियां और जनजाति संस्कृतियां और समग्र रूप में देश की बहुराष्ट्रीय जातीय संस्कृति, सभी साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण से क्षतिग्रस्त हो रही हैं, वे विकृत की जा रही हैं। उनका अपसंस्कृतिकरण किया जा रहा है। भाषाई साम्राज्यवाद फैल रहा है। लेकिन साम्राज्यवादी सांस्कृतिक हमले के विरूद्ध, बहुराष्ट्रीय भारत की विभिन्न राष्ट्रीय जातीयताएं, जनपद और जनजातियां एकताबद्ध प्रतिरोध, प्रतिकार, संगठित नहीं कर पा रही हैं। वे साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के बरअक्स अपनी सांस्कृतिक नीति सुनिश्चित नहीं कर पा रही हैं। आर्थिक राजनैतिक क्षेत्र में भी साम्राज्यवादी घुसपैठ और आक्रमण का स्थानीय प्रतिरोध और प्रतिकार तो प्रत्यक्ष होता हैं लेकिन वे व्यापक रूप धारण नहीं कर पाते भारतीय बहुराष्ट्रीय राज्य की केन्द्रीय और राज्य सरकारें इन प्रतिरोधों-प्रतिकारों में साम्राज्यवाद विरोधी जन पक्षधर भूमिका निभाने के बजाय प्रतिरोधी जनता का दमन करती दिखाई देती है। हिन्दू उग्रवादी मानसिकता पश्चिमी संस्कृति का जिस तरह का विरोध संगठित करती है वह अपने मूल चरित्र में गैर-जनतांत्रिक एवं फासीवादी होता है। वे साम्राज्यवादी अपसंस्कृति से नहीं लड़ रहे होते हैं, बल्कि हिन्दुत्ववादी सामंती संस्कृति की रक्षा हेतु सामंती लठैतों की तरह व्यवहार कर रहे होते हैं।

भारतीय समाज की सामाजिक संरचना मुख्यतया सामंती है। वह जनतांत्रिक आधुनिक समाज में विकसित नहीं हो सका। जिसे आधुनिक समाज कहा जाता है वह पश्चिमी संस्कृति की नकल जरूर करता है। रहन-सहन के आधुनिक ढंग तो उसने सीख लिए हैं, ऊपरी आचरण की सभ्यता भी सीख ली है, लेकिन उसकी चित्तवृत्ति सामंती ही बनी हुई है। औरों की तो बात छोडि़ए हमारे साम्यवादी भी सामंती अहं, व्यक्तिवाद और प्रभुतावादी प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। विचारों से साम्यवादी और व्यवहार में सामंती प्रवृत्ति साम्यवादी आंदोलन की एक बड़ी समस्या के रूप में आज भी बनी हुई है। गैर साम्यवादियों की तो बात ही छोडि़ए। विकसित पूंजीवादी देशों में जो आधुनिक संस्कृति अस्तित्व में आयी वह उनके शासकों के साम्राज्यवादी व्यवहार ने विकृत कर  दी हैं, भोगवादी, उपभोक्तावादी, वर्चस्ववादी और कुंठित।

जनपदीय संस्कृति, सामंती संस्कृति ही होती है। सवाल उनकी सामंती संस्कृति को बचाने का नहीं है, उनकी संस्कृति के श्रेष्ठ की रक्षा करते हुए उसे आधुनिक जनतांत्रिक संस्कृति में विकसित करने का है। आधुनिकता का अभिप्राय पश्चिम की नकल नहीं होता, तर्कसंगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण होता है। रूढि़यों-अंधविश्वासों-निरर्थक धार्मिक कर्मकाण्डों से मुक्ति होता है। समानता-स्वतंत्रता और भाई-चारे के मूल्यों से युक्त जीवन दर्शन को ग्रहण करना होता है। लिंग भेद, वर्ण भेद, जाति भेद, क्षेत्रियता भेद और वर्ग भेद विरोधी समानता की पक्षधर चेतना होता है। जनतांत्रिक व्यवहार होता है। ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान होता है।

ब्रिटिश साम्राज्वाद के दौर में हम पश्चिम के आधुनिक चिन्तन के सम्पर्क में तो आए, विभिन्न प्रकार के सामाजिक सुधारवादी आंदोलन भी हुए। लेकिन भारतीय समाज का सामंती ढांचे में और खासकर सामंती संस्कृति में अत्यल्प मात्रात्मक परिवर्तन ही सम्भव हो पाया।

भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आज़ादी के बाद तेजी से बढ़नी थी, वह नहीं बढ़ी। शासक वर्गों ने सामंतवाद और भूस्वामी वर्ग से गठजोड़ किया। भारतीय पूंजीवाद तब अस्तित्व में आया जबकि पूंजीवाद, वैश्विक स्तर पर अपनी पतनशील साम्राज्यवादी अवस्था में प्रवेश कर गया। दुनिया को वह दो बार व्यापक और लम्बे विश्वयुद्धों की तबाही दे चुका। वह फासीवाद का तोहफा लिए अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े दौड़ाने लगा। उसकी अपनी प्रगतिशील भूमिका समाप्त हो गई और वह पतनशील भूमिकाओं के साथ पूरी तीव्रता के साथ सक्रिय हो गया। चूंकि दुनिया में उसका समाजवादी विकल्प विचारधारात्मक स्तर पर ही नहीं जमीनी स्तर पर भी जड़ें जमाकर सारी दुनिया के जन-गणों के बीच लोकप्रियता अर्जित करने लगा, इसलिए अपनी मृत्यु को प्रत्यक्ष देखकर वह बर्बरता की तरफ बढ़ने लगा।

भारतीय पूंजीवादी शासक वर्ग भी अपनी सत्ता के छिनने और मेहनतकश जनता के सच्चे जनतंत्र की स्थापना के भय से अपनी प्रगतिशील भूमिका को छोड़कर सामंतों, राजे-रजवाड़ों और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ खड़ा हो गया। राजा-महाराजाओं और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के पुरातनपंथी विचारों, धार्मिक अंधविश्वासों और ग्राम्य जीवन के स्तर पर सामंती व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जातिवादी चेतना को पुष्ट किया। जाति और धर्म की सामंती सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को बल प्रदान किया। किसानों और मजदूरों का दमन किया। हैदराबाद निजाम के पक्ष में तेलंगाना के किसान आंदोलन को कुचलना, केरल की जनतांत्रिक ढंग से निर्वाचित साम्यवादी सरकार को भंग करना, देश भर में जगह-जगह मजदूर आंदोलनों पर पुलिस की गोलियां चलना, इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

पूंजीवादी विकास ने श्रमजीवी जन-गण की झोली में कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं डाले। दलितों पर अत्याचार और वर्ण-भेद का व्यवहार, महिलाओं पर अत्याचार और लिंग-भेद का व्यवहार, आदिवासियों का विस्थापन और उनका उत्पीड़न निरंतर जारी ही नहीं रहा, बढ़ता गया। औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए जो शिक्षा व्यवस्था खड़ी की गई उसने एक मध्य वर्ग जरूर बनाया। आरक्षण ने दलितों के बीच भी एक मध्य वर्ग बनाया और कुछ आदिवासी जन भी शिक्षा और आधुनिक ज्ञान के नजदीक आए। यह मध्य वर्ग भी भारतीय समाज को आधुनिक सांस्कृतिक वातावरण निर्मित करने के बजाय खुद भी सामंती संस्कृति को ही जीता रहा। पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता में हिस्सेदारी और अपना अभिजनीकरण ही उनका लक्ष्य बनकर रह गया। जबकि इस मध्यवर्ग की ऐतिहासिक जिम्मेदारी बहुत बड़ी है, उन्हें श्रमजीवी जन-जन के इन अस्सी प्रतिशत लोगों को पूंजीवाद-सामंतवाद से मुक्ति के क्रांतिकारी पथ पर आगे बढ़ाना था।

विभिन्न भारतीय जातीयताएं, केन्द्रीय शासक वर्ग के अविश्सनीय, पक्षपातपूर्ण, चालबाज और गैर जनतांत्रिक, व्यवहार के कारण अपनी जातीय स्वायत्तता और विकास तथा सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए सन्नद्ध होने लगीं। हिन्दु तत्ववादियों ने हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान जैसे नारों के साथ हिन्दी जाति के प्रभुताशील व्यवहार का डर फैलाया। फलस्वरूप राज-काज और अन्तरप्रान्तीय सम्पर्क की भाषा के रूप में अंग्रेजी न केवल जारी रही बल्कि दक्षिण भारतीय जातीयताओं ने उसे ही बनाए रखने का दबाव भी जारी रखा। यह स्थिति भारत में वर्तमान साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के लिए काफी सहायक सिद्ध हुई। बल्कि उसने अंग्रेजीदां प्रभुत्वशाली लोगों के माध्यम से अपनी राह को बेहद आसान बना लिया।

भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती वह संस्कृति का माध्यम भी होती है। पश्चिमी संस्कृति के पतनशील तत्व और व्यवहार, उसके माध्यम से भारतीय संस्कृति पर सहज ही आरूढ़ होते रहे। पश्चिमी साम्राज्यवादी शासकों को भारतीय शासक वर्ग को अपनी पतनशील संस्कृति में ढालने का काम आसान हो गया। भारत में एक ऐसा अंग्रेजी भाषी समाज अस्तित्वमान हो गया जिसके हाथ में राज्यसत्ता के तमाम सूत्र हैं और जो पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण में लिप्त है। यह तबका भारत में साम्राज्यवादी संस्कृति का वाहक बना हुआ है। उसे पश्चिम की घटिया, निकृष्ट और सड़ांधयुक्त चीजें भी उच्च कोटि की नजर आती हैं और भारतीय संस्कृति का श्रेष्ठ भी हीन और त्याज्य नजर आता है।

हमें इस वास्तविकता को भी समझना चाहिए कि जनपदीय संस्कृतियां जब एक-जातीय संस्कृति में समाहित होने की प्रक्रिया से गुजर रही होती है तो उनमें से एक संस्कृति प्रमुख रूप धारण कर लेती है और अन्य संस्कृतियां उसमें समाहित होने लगती हैं। हिन्दी जातीयता के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं होने के पीछे विभिन्न जनपदों की संस्कृति की अपनी समृद्ध अवस्था और किसी दूसरी संस्कृति के वर्चस्व के प्रति उनकी सजग सक्रियता भी एक मुख्य कारण रही दिखाई देती है। अन्य सांस्कृतिक तत्व तो उनके मध्य परस्पर अपनाये जाते दिखते हैं, लेकिन भाषा के स्तर पर वे हिन्दी के वर्चस्ववाद और अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक इकाई की पहचान के प्रति काफी सजग और चिन्तित दिखाई देते हैं। विभिन्न जनपदीय भाषायें संविधान की आठवीं सूची में शामिल होना चाहती हैं। अतः आंचलिक बोलियों और जनपदीय भाषाओं के संरक्षण की आश्वस्ति आवश्यक हो गई है।

हिन्दी जातीयता एक बहुजनपदीय संघबद्ध जातीयता के रूप में विकसित हुई है और उसका यही स्वरूप स्वाभाविक प्रतीत होता है। सामंती साम्राज्यवादी समय में उसके तमिल, मराठी, बंगाली, मलयाली, तेलगू जातियताओं की तरह एकमेक जातियता का रूप ग्रण करने के अवसर ज्यादा थे। अब उनके बीच संघबद्धता ही जनतांत्रिक व्यवहार के अनुकूल है।

दूसरी तरफ वैश्वीकरण की स्थितियां रोजगार के लिए अंग्रेजी भाषा को अनिवार्य बनाती जा रही है। इसलिए सभी जनपदों और जातीयताओं में ठेठ ‘प्रेप लेवल’ से ही अंग्रेजी माध्यम के स्कूल शिक्षा का मुख्य आधार बनते जा रहे हैं। अंग्रेजी भाषा में व्यवहार हेतु भी अनेक प्रकार के कोचिंग इंस्टीट्यूट और इंगलिश स्पीकिंग कोर्स चल रहे हैं। हिन्दी जातीयता के जनपद और दूसरी जातीयतायें हिन्दी के मुकाबिल अपनी स्वतंत्र पहचान के प्रति तो भारी सजगता दिखाते दिखते हैं, लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व को उत्साहपूर्वक स्वीकार किया जा रहा है। इस स्थिति में हिन्दी का वर्चस्ववादी व्यवहार, अंग्रेजी के साम्राज्यवादी वर्चस्ववाद को स्वीकार बनाने में परोक्ष सहायक दिखाई देता है।

( अगली बार – लगातार – तीसरा भाग )
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आलेख – शिवराम